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ते॑ऽवर्धन्त॒ स्वत॑वसो महित्व॒ना नाकं॑ त॒स्थुरु॒रु च॑क्रिरे॒ सदः॑। विष्णु॒र्यद्धाव॒द्वृष॑णं मद॒च्युतं॒ वयो॒ न सी॑द॒न्नधि॑ ब॒र्हिषि॑ प्रि॒ये ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

te vardhanta svatavaso mahitvanā nākaṁ tasthur uru cakrire sadaḥ | viṣṇur yad dhāvad vṛṣaṇam madacyutaṁ vayo na sīdann adhi barhiṣi priye ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ते। अ॒व॒र्ध॒न्त॒। स्वऽत॑वसः। म॒हि॒ऽत्व॒ना। आ। नाक॑म्। त॒स्थुः। उ॒रु। च॒क्रि॒रे॒। सदः॑। विष्णुः॑। यत्। ह॒। आव॑त्। वृष॑णम्। म॒द॒ऽच्युत॑म्। वयः॑। न। सी॒द॒न्। अधि॑। ब॒र्हिषि॑। प्रि॒ये ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:85» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:10» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:14» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (विष्णुः) सूर्यवत् शिल्पविद्या में निपुण मनुष्य (प्रिये) अत्यन्त सुन्दर (बर्हिषि) आकाश में (वृषणम्) अग्नि-जल के वर्षायुक्त विमान के (अधिसीदन्) ऊपर बैठ के (वयो न) जैसे पक्षी आकाश में उड़ते और भूमि में आते हैं, वैसे (यत्) जिस (मदच्युतम्) हर्ष को प्राप्त दुष्टों को रोकनेहारे मनुष्यों की (आवत्) रक्षा करता है, उसको जो (स्वतवसः) स्वकीय बलयुक्त मनुष्य प्राप्त होते हैं (ते ह) वे ही (महित्वना) महिमा से (अवर्धन्त) बढ़ते हैं और जो विमानादि यानों में (आतस्थुः) बैठ के (उरु) बहुत सुखसाधक (सदः) स्थान को जाते-आते हैं, वे (नाकम्) विशेष सुख (चक्रिरे) करते हैं ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे पक्षी आकाश में सुखपूर्वक जाके आते हैं, वैसे ही साङ्गोपाङ्ग शिल्पविद्या को साक्षात् करके उससे उत्तम यानादि सिद्ध करके अच्छी सामग्री को रख के बढ़ाते हैं, वे ही उत्तम प्रतिष्ठा और धनों को प्राप्त होकर नित्य बढ़ा करते हैं ॥ ७ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते किं कुर्युरित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथा विष्णुः प्रिये बर्हिषि वृषणमधिसीदन् वयो न यन्मदच्युतं शत्रुनिरोधकमावत् स्वतवसस्ते ह महित्वना (अवर्धन्त) वर्धन्ते ये विमानादियानेन तस्थुरुरुसदः गच्छन्त्याऽऽगच्छन्ति ते नाकं चक्रिरे ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ते) मनुष्याः (अवर्धन्त) वर्धन्ते (स्वतवसः) स्वं स्वकीयं तवो बलं येषां ते (महित्वना) महिम्ना। महित्वेनेति प्राप्ते वा च्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति विभक्तेर्नादेशः। अत्र सायणाचार्येण व्यत्ययेन नाभावः कृतः सोऽशुद्धः। (आ) समन्तात् (नाकम्) सुखविशेषं स्वर्गम् (तस्थुः) तिष्ठन्तु (उरु) बहु (चक्रिरे) कुर्वन्ति (सदः) सुखस्थानम् (विष्णुः) शिल्पविद्याव्यापनशीलो मनुष्यः (यत्) यम् (ह) किल (आवत्) रक्षणादिकं कुर्यात् (वृषणम्) अग्निजलवर्षणयुक्तं यानसमूहम् (मदच्युतम्) यो मदं हर्षं च्योतति तम् (वयः) पक्षी (न) इव (सीदन्) गच्छन् (अधि) उपरिभावे (बर्हिषि) अन्तरिक्षे (प्रिये) प्रीतकरे ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा पक्षिण आकाशे सुखेन गत्वाऽऽगच्छन्ति, तथैव ये प्रशस्तशिल्पविद्याविद्भ्योऽध्यापकेभ्यः साङ्गोपाङ्गां शिल्पविद्यां साक्षात्कृत्य तया यानानि संसाध्य सम्यग्रक्षित्वा वर्धयन्ति, त एवोत्तमां प्रतिष्ठां प्रशस्तानि धनानि च प्राप्य नित्यं वर्धन्त इति ॥ ७ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे पक्षी आकाशात स्वच्छंदपणे विहार करतात तसे संपूर्ण शिल्पविद्येला प्रत्यक्षात आणून उत्तम यान इत्यादी सिद्ध करून त्यात चांगली सामग्री ठेवून वाढ करतात तेच उत्तम प्रतिष्ठा व धन प्राप्त करून नित्य वृद्धिंगत होतात. ॥ ७ ॥